हम इक्कीसवीं सदी में हैं, जहां विज्ञान सम्मत बातें ही सर्वमान्य होती हैं लेकिन आज भी हमारे देश में बहुत सारी ऐसी घटनाएं देखने और सुनने को मिल जाती हैं जो विज्ञान से परे होती हैं। उन्हीं में से एक है "प्रेत बाधा"। "प्रेत बाधा" विज्ञान के नजरिये से एकदम कपोल कल्पित विषय है। आज भी हमारे गांवों में ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनके अनुसार किसी व्यक्ति पर भूत-प्रेत का असर हो सकता है। प्रेत बाधा को अधिकांश धर्मों ने भी मान्यता दी है। अथर्ववेद में जादू-टोनों के संबंध में चर्चा की गई है, जिसमें कहा गया है कि अनेक अनुष्ठान भूतों और दुष्ट आत्माओं को भगाने में सहायक हैं। भारत के कई इलाकों में यह धारणा प्रचलित है, विशेषकर पश्चिम बंगाल, उड़ीसा तथा केरल जैसे दक्षिणी राज्यों में इस धारणा को बहुत मान्यता दी जाती है। इस बाधा से मुक्ति पाने का मुख्य साधन मंत्र और यज्ञ होते हैं जिनका प्रयोग वैदिक तथा तांत्रिक दोनों परंपराओं में किया जाता है। बौद्ध धर्म में भी इसकी चर्चा होती है। ईसाई धर्म में भी इसकी चर्चा करते हुए इसे दूर करने के उपायों की बात कही गई है। ईसाई धर्म में "प्रेत बाधा" को दूर करने वाले व्यक्ति को एक्सॉसिस्ट (ओझा) कहते हैं। एक्सॉसिस्ट प्रार्थनाओं तथा तंत्र-मंत्र संकेतों, प्रतीकों, मूर्तियों, ताबीज़ों इत्यादि जैसे धार्मिक सामग्रियों का इस्तेमाल करते हैं। यीशु पर यहूदी विश्वकोश का आलेख कहता है, कि “यीशु खास तौर पर बुरी आत्माओं (भूतों) को दूर हटाने के कार्य में समर्पित थे”। कुछ इसी तरह की मान्यता लगभग अधिकांश धर्म-सम्प्रदायों में है।
भूत-पिशाच और वैज्ञानिक दृष्टिकोण:
विकीपीडिया के अनुसार पिशाच कल्पित प्राणी है जो जीवित प्राणियों के जीवन-सार खाकर जीवित रहते हैं आमतौर पर उनका खून पीकर। हालांकि विशिष्ट रूप से इनका वर्णन मरे हुए किन्तु अलौकिक रूप से अनुप्राणित जीवों के रूप में किया गया। जीवित प्राणियों के रक्त अथवा मांस का भक्षण करने वाले अलौकिक प्राणियों की कथाएं संसार की लगभग सभी संस्कृतियों में अनेक कई सदियों से पाई गई है। आज हम इन अस्तित्वों को भूत-प्रेत व पिशाचों से संबद्ध कर देते हैं। ईरानी सभ्यता उन सभ्यताओं में से एक है, जिसमें रक्तपान करने वाली दुष्ट आत्माओ की कथाएं मिलती हैं। प्राचीन बेबिलोनिया में भी पौराणिक लिलितु की कथाओं ने अपने पर्याय लिलिथ और हिब्रू पिशाच विद्या से उसकी बेटी लीलू को जन्म दिया। लिलितु को एक दुष्टात्मा समझा जाता था और प्रायः शिशुओं के रक्त पान पर ही जीवित रहने वाले चरित्र के रूप में चित्रित किया जाता था। हालांकि यहूदी प्रतिरूप पिशाचों के बारे में ऐसा कहा जाता था कि वे पुरुष और नारी दोनों के साथ ही नवजात शिशुओं को भी खाते थे। पता नहीं इस बातों में कितना दम है। भूत-प्रेत एक ऐसा विषय है, जिसे कुछ लोग सच मानते हैं तो कुछ केवल कोरी अफवाह। यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात की जाय तो भूत-बाधा ग्रस्तता को डीएसएम-IV (DSM-IV) अथवा आईसीडी-10 (ICD-10) के द्वारा वैध मनोवैज्ञानिक अथवा चिकित्सीय नैदानिक मान्यता प्राप्त नहीं है। वे लोग, जिनका भूत-बाधा ग्रस्तता में विश्वास है, कभी-कभी हिस्टीरिया, मैनिया, साइकॉसिस, टूअरेट्स के (Tourette's) लक्षण, मिरगी, स्किड्जोफीनिया अथवा डिसोसिएटिव आइडेंटिटी डिसऑर्डर जैसे मानसिक रोगों के लक्षणों को भूत-बाधा ग्रस्तता से जोड़ते हैं। डिसोसिएटिव आइडेंटिटी डिसर्डऑर में, जहां बदले हुए व्यक्तित्व के लोगों से उनकी पहचान के बारे में प्रश्न किया जाता है, 29% लोग अपने-आप को भूत बताते पाए गए हैं। इसके अतिरिक्त मोनोमैनिया का एक रूप होता है जिसे डेमोनोमैनिया अथवा डेमोनोपैथी कहते हैं, जिसमें रोगी को यह विश्वास हो जाता है कि उस पर एक या अधिक भूतों का प्रकोप है। इस तथ्य को, कि भूत-प्रेत का अपसारण ऐसे लोगों पर काम करता है जो भूत-बाधा ग्रस्तता के लक्षणों का अनुभव करते हैं, कुछ लोगों के द्वारा छद्म औषधि के प्रभाव और परामर्श की शक्ति के कारण उत्पन्न प्रभाव माना जाता है। अनुमानित भूत-बाधा से ग्रस्त कुछ लोग वास्तव में आत्मरति से अथवा निम्न आत्मसम्मान से ग्रस्त होते हैं तथा लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए इस प्रकार की हरकतें करते हैं मानो वे "भूत-बाधा से ग्रस्त व्यक्ति" हों।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण:
ज्योतिष में चन्द्रमा को मन कहा गया है और मन के बारे में एक बडी प्रसिद्ध कहावत है कि "मन के हारे हार है, मन के जीते जीत"। प्रेतबाधा के मामले में भी मन यानी कि कुण्डली में स्थित चन्द्रमा की स्थिति को देखा जाना जरूरी होता है। यानी साधारण शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यदि चंद्रमा शनि, राहू व केतू के द्वारा पीडित हो रहा हो तो जातक या जातिका को प्रेतबाधा से ग्रस्त होने का भय अधिक रहता है। हांलाकि लग्न और लग्नेश का पाप ग्रहों और विशेषकर शनि, राहू व केतू के द्वारा पीडित होना भी प्रेतबाधा के प्रभावी होने में सहायक होता है। लेकिन मेरे अनुभव में यही आया है कि लग्न और लग्नेश से अधिक चंद्रमा, बुध और बृहस्पति के पीडित होने की स्थिति में यह बाधा व्यक्ति पर अधिक प्रभावी होती है। इसका कारण यह है कि जिनका चन्द्रमा कमजोर हो लेकिन बुध मजबूत हो तो भयभीत होने की स्थिति में बुध यानी कि बुद्धि और तर्क की कसौटियों से वे अपने मन को समझा लेते हैं भूत प्रेत के भय से काफी हद तक स्वयं को बचा लेते हैं। जिनका बृहस्पति मजबूत होता है वो धार्मिक कृत्यों, पूजा-पाठ और अपने ज्ञान के माध्य से भय और भ्रम से स्वयं को बचाने में समर्थ होते हैं और उन्हें प्रेतबाधा का भय नहीं रहता। जिनकी कुण्डली में लग्न, लग्नेश चंद्रमा, बुध और बृहस्पति सभी पीडित होते हैं उनको प्रेत बाधा ग्रस्त होने का सर्वाधिक खतरा रहता है। हालांकि युवा वर्ग में शुक्र और मंगल के पीडित होने की अवस्था में भी प्रेतबाधा की शिकायत देखी गई है। आइए कुछ अन्य ग्रह, दशा और गोचरीय स्थियों की चर्चा कर ली जाय जिसमें प्रेत बाधा जैसी मान्यता को सर्वाधिक बल मिलने का मौका मिलता है।
जब किसी के लग्न, लग्नेश या चन्द्रमा पर राहु या शनि का दुष्प्रभाव होने लगता है अथवा जन्मकालीन शनि या राहू पर शनि का गोचर होता है और जन्मकालीन चंद्र, बुध और बृहस्पति कमजोर होते है तो व्यक्ति को प्रेतबाधा या ऊपरी हवाओं के प्रभाव की शिकायत हो सकती है। ऐसे में वह व्यक्ति साधारण लोगो की तरह से बात नही करता है बल्कि उसकी बातें किसी ज्ञानी पुरुष या स्त्री के जैसी होती हैं। पीडित व्यक्ति के अन्दर गजब का साहस और शक्ति आ जाती है। क्रोधित होने की अवस्था में वह कई लोगों के सम्भालने से नहीं सम्भलता बल्कि आठ दस लोगों पर भी भारी पडने लगता है।
यदि जन्म के समय लग्न या लग्नेश पर केतू का प्रभाव हो अथवा जन्मकालीन चन्द्रमा के साथ केतु का सम्बंध हो और जन्मकालीन राहु, गुरु, शनि या केतु पर गोचर के केतू का प्रभाव पडता है तो जातक या जातिका पर यक्ष नाम प्रेत का साया होने की बात कही जाती है। ऐसे में पीडित व्यक्ति धीमे स्वर मे बात करता है। शरीर दुबला होने लगता है। उसकी चाल मे तेजी आ जाती है। आंखो का रंग तांबे जैसा हो जाता है। वह अक्सर आंखो से ही इशारे करने लगता है। और उसे लाल कपडे अधिक पसंद आते हैं।
यदि जन्म के समय चन्द्रमा के स्थाई घर यानी कि चतुर्थ भाव अथवा चतुर्थेश पर राहू का प्रभाव हो और गोचर का राहू चतुर्थ भाव या चतुर्थेश पर प्रभाव डालता है तब अक्सर वह व्यक्ति राख का तिलक करने लगता है। उस व्यक्ति को बुरे और डरावने सपने आने लगते हैं। यदि शरीर की बात की जाय तो उसके शरीर के जोड अकारण दर्द करने लगते है। पेट दर्द की शिकायत रहने लगती है गले के रोग जैसे इन्फ़ेक्सन आदि का होना हमेशा छाती मे जकडन का होना भी देखा जाता है। इस प्रेतबाधा को क्षेत्रपाल दोष कहा जाता है।
यदि अष्टमेश लग्न में हो अथवा अष्टमेश और चंद्रमा की युति चतुर्थ भाव में हो तो और अष्टमेश की दशा में राहू का गोचर लग्न या जन्मकालीन चन्द्रमा पर हो तो जातक या जातिका की आदत बात बात पर रोने या चिल्लाने की हो जाती है। आंखो मे जलन या रोशनी कम होने की शिकायत रहती है। शरीर मे बेबजह ही दर्द होता है साथ ही शरीर में कंपकपाहट भी रहती है। खाने पीने का होश नही रहता। रखी हुई चीज को भूलने की आदत होती है। अनजाने में ही एक काम को करते करते दूसरे काम को करने भूल होती रहती है। रखी हुई चीजों को भूल कर दूसरों पर आरोप लगाने की आदत पड जाती है। इस दोष को शाकिनी दोष के नाम से जाना जाता है। इस बाधा का प्रभाव पुरुषों को की बजाय स्त्रियों में अधिक होता है।
जन्म कुण्डली में राहू या केतू की युति शनि के साथ लग्न या चतुर्थ में हो और उन पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो जन्मकालीन राहू पर केतू का गोचर होने पर व्यक्ति को नागदोष से पीडित माना जाता है। इस दोष के होने पर व्यक्ति को सीधा लेटने पर नींद नहीं आती लेकिन जैसे ही वह छाती के बल लेटता है उसे नींद आ जाती है। उसकी आदत शरीर को सिकोड कर सोने की होती है लेकिन जरा सी आहट होते ही उसकी नींद टूट जाती है। अन्धेरे मे रहने और सोने की कोशिश करता है। यदि उसके बारे में कोई बात की जाय या कोई भी बडा मुद्दा आते ही वह लम्बी-लम्बी सांसें छोडने लगता है अथवा अपनी जीभ से होंठो को चाटता रहता है। उसे दूध, दूध से बने पदार्थ और अंडे आदि अधिक मात्रा में खाने की आदत हो जाती है। वह तेज आवाजें निकालते हुए भोजन करता है।
यदि जन्म लग्न में मंगल और केतू की युति हो और उस पर शनि का गोचर होता है तो उस समय होने वाली प्रेतबाधा को "कामण दोष" का नाम दिया गया है। यह दोष प्राय: स्त्रियों को ही पीडित करता है। इस बाधा के होने पर मन में स्थिरता नही होती। संगति बुरी हो जाती है। माथा कन्धा और सिर का पिछला भाग हमेशा भारी रहता है। शरीर दुर्बल होता जाता है गाल धंस जाते है स्तन और पुट्ठे सूख जाते है नाक हाथ तथा नेत्रों मे जलन रहती है शरीर का आकर्षण समाप्त होने लगता है,ल्यूकोरिया जैसे रोग उत्पन्न हो जाते है।
यदि किसी स्त्री की कुण्डली में लग्न पर शुक्र और मंगल की युति हो और इन पर राहू का गोचर होता है तो उस स्त्री के भीतर सती वाले गुण आजाते है। वह सतियों के गुणगान करने लगती है। वह अपना सारा समय पूजा पाठ में बिताना चाहती है। उसकी रुचि श्रंगार करने और सजने संवरने में जरूरत से ज्यादा हो जाती है लेकिन वह यौन सम्बंधों से विरक्त हो जाना चाहती है। यदि वह गर्भवती है तो उसका गर्भपात हो जाता है। वह अपने किसी भी जानकार या सम्बंधी से बात नहीं करना चाहती। विरोध करने पर जल कर मर जाने की धमकी देती है।
यदि किसी स्त्री की कुण्डली में लग्गनेश और अष्टमेश एक साथ हो और उन पर राहू का प्रभाव हो तो ऐसी स्थिति में जब राहू का गोचर अष्टमेश पर होता है तो स्त्री शरीर से सबल हो जाती है। वह अत्यधिक कामुक हो जाती है वह कोई भी बहाना बना कर पुरुषों का स्पर्श चाहती है। उसे किसी भी रिश्ते, जाति या मान सम्मान का खयाल नहीं रहता। संस्कार खराब होने पर वह मांस मदिरा का सेवन भी करने लगती है। वह हर पुरुष को देखकर मुस्कुरा देती है। इस तरह की बाधा को चुडैल दोष का नाम दिया गया है।
जन्म कुण्डली में बृहस्पति ग्रह लग्न पर हो, लग्नेश हो अथवा चंद्रमा के साथ हो और उस पर राहू का प्रभाव हो और राहू का गोचर बृहस्पति पर हो तो व्यक्ति के अन्दर देवताओं जैसे गुण आ जाते है। वह सदैव अधिक से अधिक साफ़ सुथरा रहना चाहता है। यदि वह स्त्री है तो वह अपना अधिक से अधिक समय स्नानागार में व्यतीत करती है, यौन संबंधों से उसे अरुचि हो जाती है। वह बात-बात पर आशीर्वाद या वरदान देने की बात करता है,धूप बत्ती जलाना फ़ूलो को देखकर प्रसन्न होना संस्कृत भाषा का उच्चारण करना आदि बाते उसके स्वभाव में देखने को मिलती है। उसकी दृष्टि एक स्थान पर थम सी जाती है आंखो की पुतलियों मे वह चंचलता नही रहती।
यदि शुक्र और राहू की युति लग्न, चतुर्थ, सप्तम या नवम भाव में हो और नवमेश की दशा में राहू का गोचर जन्मकालीन शुक्र पर हो तो व्यक्ति को धार्मिक बातो या कृत्यों से अरुचि हो जाती है। गुरु, शास्त्र और धर्म आदि की बातें सुनकर उसे गुस्सा आता है। वह इनके अनेक दोषों को गिनाने लगता है। शरीर मे पसीना अधिक आता है। भरपेट खाने के बाद भी भोजन का लालच बना रहता है। इस बाधा को "देवाशत्रु" नाम से जाना जाता है। लेकिन उपरोक्त स्थिति में ही अगर शुक्र राहु के साथ बुध भी शामिल हो जाता है तो व्यक्ति के शरीर पर गन्धर्वशक्ति का आना माना जाता है उस समय वह हमेशा प्रसन्न रहने का प्रयास करता है। हंसी मजाक करना और अधिक बाते करने मे उसकी बहुत रुचि होती है। उसे वनों और उपवनों से गहरा लगाव रहता है। वह इन जगहों पर अकेले बैठकर गुनगुनाते पाया जाता है। यदि उसे उसके खयालों से जगा दिया जाय तो वह मुस्कुरा उठता है।
यदि राहू का सम्बंध नवम भाव या नवमेश से हो तो ऐसी स्थिति में जब राहू का गोचर लग्न, लग्नेश या सूर्य पर होता है तो व्यक्ति का स्वभाव अचानक शान्त हो जाता है। वह अकेले रहना चाहता है। उसे हर काम में असफलता मिलती है। रात को सोते समय पैरो मे जलन होती है या फिर नींद नही आती। उसकी एक और आदत हो जाती है कि वह किसी भी कपडे को बाएं अंग से पहनना शुरू करता है। मीठा भोजन करता है। तिल आदि से बने प्रसाद अधिक पसंद करता है। अपने परिवार के बुजुर्गो के बारे में बहुत बातें करता है। इस लक्षण वाली बाधा को पितृ दोष का नाम दिया गया है।
वृश्चिक लग्न में लग्न पर ही राहू-मंगल की युति हो तो लग्न पर राहू का गोचर होने की स्थिति में जातक पर कुछ राक्षसी प्रवृत्तियां हावी होने लगती हैं। व्यक्ति शराब, मांस या अन्य म्लेच्छता पूर्ण भोजन करने लगता है। जिन्दा जीवों को भूनकर खाने की आदत हो जाती है। मार-काट, चीख-पुकार, एक्सीडेंट की बातें या घटनाएं उसे अच्छी लगने लगती हैं। असामाजिक लोगों से मित्रता करता है और दाढी बढा लेता है।
वृश्चिक लग्न में लग्न पर ही केतू-मंगल की युति हो तो लग्न पर राहू का गोचर होने की स्थिति में व्यक्ति के अन्दर पिशाच बाधा का जन्म होता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति कमजोर होने लगता है। उसे कपडे पहनने में दिक्कत होने लगती है। वह निर्जन स्थान में घूमना चाहता है। कितना भी खिला दो लेकिन खाने से जी नहीं भरता। रात में वह एकान्त कमरे में नग्न अवस्था में सोना चाहता है। उसके शरीर से दुर्गन्ध आने लगती है। जानवरों के साथ अथवा अप्राकृतिक मैथुन करने मे उसकी रुचि बढ जाती है। अत्यधिक कामुकता के कारण अपने जीवन साथी या किसी को भी जान से मार सकता है। वह अपने होठों को काटकर अपना ही रक्त चाटता रहता है।
वृश्चिक लग्न हो और लग्न पर गुरु राहू की युति हो और चंद्रमा भी पीडित हो तो लग्न पर राहू का गोचर होने पर व्यक्ति को ब्रह्मराक्षस दोष से पीडित माना जाता है। ऐसे में व्यक्ति के शरीर में बहुत पीडा रहती है। उसे ऐसा लगने लगता है कि वह मरने वाला है हालांकि वह मरता नहीं है। यदि कोई उसके सामने धर्म-कर्म या तीर्थ यात्रा आदि की बात करता है तो वह उनकी बातों का पुरजोर विरोध करता है और अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझने लगता है।
मेष लग्न हो और राहू अष्टम में हो अर्थात वृश्चिक राशि में हो तो जब राहू का गोचर बारहवें भाव में होता है और ऐसे में उसकी युति गुरु से भी हो जाय तो इसे प्रेत दोष की श्रेणी मे गिना जाता है। ऐसे में वह किसी एक्सीडेंट में मरने वाले व्यक्ति का नाम लगाकर कहने लगता है कि उसके ऊपर उस मृत व्यक्ति का प्रभाव है। वह अजीब-अजीब सी आवाजें निकालने लगता है। किसी की बात नहीं मानता। बार-बार बाहर भागने की कोशिश में रहता है। कहीं से कूद जाना चाहता है। कोई पकडना चाहे तो उत्तेजित होकर मारपीट करने लगता है। गाली-गलौज या जबरजस्ती करके अपनी बात मनवाना चाहता है। बिना खाए-पिए भी ताकतवर बना रहता है।
उपरोक्त सभी स्थितियों से यही निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति के लग्न, लग्नेश और चंद्रमा पर जिस पाप ग्रह के गोचर का प्रभाव पडता है उसके अनुसार अथवा सम्बंधित दशा के अनुसार ही व्यक्ति का आचरण हो जाता है। इस आचरण को ही प्रेतबाधा की संज्ञा दे दी जाती है।
व्यक्तिगत अनुभव:
यह कुण्डली एक ऐसे जातक की है जिसकी उम्र अभी महज 14 वर्ष की है। जब वह 12 वर्ष का था तभी से उस पर प्रेतबाधा का असर देखा गया। जून 2011 के शुरुआती दिनों से इस पर प्रेतबाधा का प्रभाव दृष्टिगोचर हुआ। उस समय इस पर शनि में चन्द्रमा की दशा का प्रभाव शुरू हुआ और दिसम्बर 2012 तक रहेगा। जैसा कि आप देख सकते हैं कि इनका चंद्रमा जो कि लग्नेश भी है वह नीच राशि में स्थित है। वह बृहस्पति के नक्षत्र में है और बृहस्पति भी इस कुण्डली में नीच का है। बुध नीच के राशि में स्थित सूर्य के साथ है और वह भी नीच के बृहस्पति के नक्षत्र में है। जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा है कि "जिनकी कुण्डली में लग्न, लग्नेश चंद्रमा, बुध और बृहस्पति सभी पीडित होते हैं उनको प्रेत बाधा ग्रस्त होने का सर्वाधिक खतरा रहता है। हालांकि युवा वर्ग में शुक्र और मंगल के पीडित होने की अवस्था में भी प्रेतबाधा की शिकायत देखी गई है।" उपरोक्त सारी स्थितियां इस कुण्डली में देखी जा सकती हैं। और जब सप्तमेश-अष्टमेश शनि की दशा में लग्नेश होकर पंचम में स्थित चंद्रमा की दशा मिली तो इस पर प्रेतबाधा का प्रभाव दिखा। आप देख सकते हैं कि प्रेत बाधा के साथ-साथ यह जिद और किसी स्त्री जाति के मिलन की व्याकुलता से भी ग्रस्त रहा है। क्यों कि महादशा नाथ शनि जो कि सप्तमेश और अष्टमेश है उसकी दृष्टि शुक्र और मंगल पर है तथा अंतरदशा नाथ चंद्रमा प्रेम भाव में स्थित है। चंद्रमा नीच का है अत: यह बालक भावना विहीन रहा, मां का विरोधी रहा। सूर्य नीच का है अत: इसके इस कृत्य से इनके पिताजी परेशान रहे। बुध और बहस्पति के पीडित होने के कारण इसकी बुद्धि और ज्ञान निष्क्रिय रहे और यह अपनी परेशानियों पर यथासम्भव अंकुश लगाने की बजाय और बढाता रहा। आशा है यह दिसम्बर के बाद अपना हित समझने लगेगा।
कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि ऐसी बाधाएं होती तो हैं लेकिन बहुत सारे मामलों में पीडित व्यक्ति लोगों की सहानुभूति पाने के लिए, लोगों का ध्यान आकर्षण करने के लिए, अथवा इसी बहाने अपनी मनमानी करने के लिए इन बातों को और बढा चढा कर प्रस्तुत करता है।
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